खण्डवाल वंश (खण्डवला कुल)- दरभंगा राज
दरभंगा राज बिहार प्रान्त के मिथिला क्षेत्र में लगभग 8380 किलोमीटर के दायरे में फैला हुआ था। इसका मुख्यालय दरभंगा शहर था। इस राज की स्थापना मैथिल ब्राह्मण जमींदारों ने 16वीं सदी की शुरुआत में की थी। ब्रिटिश राज के दौरान तत्कालीन बंगाल के 18 सर्किल के 4,495 गाँव दरभंगा नरेश के शासन में थे। राज के शासन-प्रशासन को देखने के लिए लगभग 7,500 अधिकारी बहाल थे। भारत के रजवाड़ों में एवं प्राचीन संस्कृति को लेकर दरभंगा राज का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है।
दरभंगा-महाराज खण्डवाल कुल से थे जिसके शासन-संस्थापक श्री महेश ठाकुर थे। इनका गोत्र शाण्डिल्य था। उनकी अपनी विद्वता व उनके शिष्य रघुनन्दन की विद्वता की चर्चा सम्पूर्ण भारत में उत्कृष्ट स्तर पर था। महाराजा मानसिंह के सहयोग से अकबर द्वारा उन्हें राज्य की स्थापना के लिए अपेक्षित सहयोग व धन प्राप्त हुई थी।
खण्डवाल राजवंश भारत में कई ब्राह्मण राजवंशों में से एक था, जिसने 1960 के दशक तक मुगल सम्राट अकबर के समय से मिथिला / तिरहुत क्षेत्र में शासन किया था। उन्हें ‘दरभंगा राज’ के नाम से जाना जाने लगा। उनकी भूमि की सीमा, जो समय के साथ संक्रामक, विविध नहीं थी, और उनके स्वामित्व का क्षेत्र उस क्षेत्र की तुलना में छोटा था जिसे उन्हें स्वच्छता व्यवस्था के तहत प्रदान किया गया था। एक विशेष रूप से महत्वपूर्ण कमी तब हुई जब ब्रिटिश राज के प्रभाव के कारण वे उन क्षेत्रों पर नियंत्रण खो बैठे जो नेपाल में थे, लेकिन फिर भी, उनकी पकड़ काफी थी। एक अनुमान से पता चलता है कि जब उनका शासन समाप्त हुआ, तो लगभग 4500 गाँवों के साथ, प्रदेशों में लगभग 6,200 वर्ग किलोमीटर (2,400 वर्ग मील) शामिल थे।[1]
गठन
वह क्षेत्र जो अब भारत के बिहार राज्य के उत्तरी भाग में शामिल है, तुगलक वंश के साम्राज्य के अंत में अराजकता की स्थिति में था। तुगलक ने बिहार पर नियंत्रण कर लिया था, और तुगलक साम्राज्य के अंत से लेकर 1526 में मुगल साम्राज्य की स्थापना तक क्षेत्र में अराजकता और अराजकता थी। अकबर (1556-1605) ने महसूस किया कि मिथिला के करों को केवल तभी एकत्र किया जा सकता है यदि कोई राजा हो जो वहाँ शांति सुनिश्चित कर सके। मिथिला क्षेत्र में ब्राह्मणों में विशेष रूप से सम्पन्नता थी और मिथिला में पहले ब्राह्मण राजा थे।
अकबर ने राजपंडित चंद्रपति ठाकुर को दिल्ली बुलाया और उनसे अपने एक बेटे का नाम रखने को कहा, जिसे मिथिला में उसकी जमीनों के लिए कार्यवाहक और कर संग्रहकर्ता बनाया जा सके। चंद्रपति ठाकुर ने अपने मध्य पुत्र का नाम महेश ठाकुर रखा और अकबर ने 1577 ई. में राम नवमी के दिन महेश ठाकुर को मिथिला का कार्यवाहक घोषित किया।[2]
राज दरभंगा ने बेतिया, तराई और बंजारों के सरदारों से विद्रोह को दबाने में नवाबों की मदद के लिए अपनी सेना का इस्तेमाल किया।[3]
समेकन
महेश ठाकुर के परिवार और वंशजों ने धीरे-धीरे सामाजिक, कृषि और राजनीतिक मामलों में अपनी शक्ति को मजबूत किया और उन्हें मधुबनी के राजा के रूप में माना जाने लगा। दरभंगा 1762 से राज दरभंगा परिवार की शक्ति की गढ़ बन गया। मधुबनी जिले में स्थित राजनगर बिहार में उनका एक महल भी था। उन्होंने स्थानीय लोगों से जमीन खरीदी। उन्हें एक खंडवला परिवार (सबसे अमीर जमींदार) के रूप में जाना जाता है।
बीस साल (1860-1880) की अवधि के लिए, दरभंगा राज को ब्रिटिश राज द्वारा कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अधीन रखा गया था। इस अवधि के दौरान, दरभंगा राज उत्तराधिकार को लेकर मुकदमेबाजी में शामिल था। इस मुकदमेबाजी ने तय किया कि संपत्ति असंभव थी और उत्तराधिकार को प्राइमोजेनरी द्वारा नियंत्रित किया जाना था। दरभंगा सहित क्षेत्र में जमींदारी वास्तव में समय-समय पर वार्ड ऑफ कोर्ट के हस्तक्षेप की मांग करती है, क्योंकि ब्रिटिश अधिकारियों के नेतृत्व, जिन्होंने बुद्धिमानी से धन का निवेश किया था, उनकी आर्थिक स्थिति को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति थी। संपत्ति इस समय से पहले किसी भी घटना में बुरी तरह से चल रही थी: दोनों भाई-भतीजावाद और चाटुकारिता से प्रभावित एक जटिल प्रणाली ने परिवार की किराये की आय को नाटकीय रूप से प्रभावित किया था। न्यायालय द्वारा शुरू की गई नौकरशाही प्रणाली, जिसके नियुक्त अधिकारियों का क्षेत्र से कोई संबंध नहीं था, ने इस मुद्दे को सुलझाया, हालांकि मालिकों के लिए जो सबसे अच्छा था, उस पर पूरी तरह से ध्यान केंद्रित किया जा रहा है, लेकिन किरायेदारों के परिणामों पर विचार किए बिना ऐसा किया।[4]
19 वीं सदी के अंत में, दरभंगा एस्टेट के 47 प्रतिशत फसली क्षेत्र का उपयोग चावल की खेती के लिए किया गया था।[5] कुल खेती का तीन प्रतिशत उस समय इंडिगोट को दिया गया था, जो रासायनिक रंगों की शुरूआत से पहले इस फसल के लिए क्षेत्र के सबसे महत्वपूर्ण केंद्रों में से एक था।[6]
अन्त
1947 में ब्रिटिश शासन से भारत की स्वतंत्रता के बाद, भारत सरकार ने कई भूमि सुधार कार्यों की शुरुआत की और जमींदारी व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया। दरभंगा राज की शक्ति व अस्तित्व कम होती चली गई।
राज दरभंगा के अंतिम शासक महाराजा बहादुर सर श्री कामेश्वर सिंह थे। 1960 ई. में एक उत्तराधिकारी का नाम लिए बिना उनका निधन हो गया।[1]
शाही स्थिति पर विवाद
दरभंगा के राज परिवार की उत्पत्ति, अकबर द्वारा महेश ठाकुर को तिरहुत की सरकार के अनुदान से पता लगाया गया है। दरभंगा राज के सिद्धांत के समर्थकों का तर्क था कि यह प्रिवी काउंसिल द्वारा आयोजित किया गया था, कि शासक एक वंशानुगत वंशानुगत उत्तराधिकारी द्वारा शासित उत्तराधिकार था। समर्थकों का तर्क है कि 18 वीं शताब्दी के अंत तक, अंग्रेजों द्वारा बंगाल और बिहार की विजय तक तिरहुत की सरकार व्यावहारिक रूप से एक स्वतंत्र राज्य थी।[7]
सिद्धान्त के विरोधियों का तर्क है कि दरभंगा राज कभी भी एक राज्य नहीं था, बल्कि रियासत की सभी सीमाओं के साथ एक जमींदार था। दरभंगा राज के शासक भारत में सबसे बड़े ज़मींदार थे, और इस तरह राजा, और बाद में महाराजा और महाराजाधिराज कहलाते थे। उन्हें शासक राजकुमार का दर्जा दिया गया था।[8] आगे, बंगाल और बिहार पर विजय प्राप्त करने के बाद, ब्रिटिश राज ने स्थायी निपटान की शुरुआत की, और दरभंगा के राजा को केवल जमींदार के रूप में मान्यता दी गई। राज दरभंगा ने दरभंगा के पुराने जमीनदार, कचहरी के खान साहिब की डेहरी में पुराने लगान (भूमि कर) का भी भुगतान किया।
शासक सूची
1.राजा महेश ठाकुर – 1556-1569 ई. तक। इनकी राजधानी वर्तमान मधुबनी जिले के भउर (भौर) ग्राम में थी, जो मधुबनी से करीब 10 मील पूरब लोहट चीनी मिल के पास है।
2.राजा गोपाल ठाकुर – 1569-1581 तक। इनके काशी-वास ले लेने के कारण इनके अनुज परमानन्द ठाकुर गद्दी पर बैठे।
3.राजा परमानन्द ठाकुर – (इनके पश्चात इनके सौतेले भाई शुभंकर ठाकुर सिंहासन पर बैठे।)
4.राजा शुभंकर ठाकुर – (इन्होंने अपने नाम पर दरभंगा के निकट शुभंकरपुर नामक ग्राम बसाया।) इन्होंने अपनी राजधानी को मधुबनी के निकट भउआरा (भौआरा) में स्थानान्तरित किया।
5.राजा पुरुषोत्तम ठाकुर – (शुभंकर ठाकुर के पुत्र) – 1617-1641 तक।
6.राजा सुन्दर ठाकुर (शुभंकर ठाकुर के सातवें पुत्र) – 1641-1668 तक।
7.राजा महिनाथ ठाकुर – 1668-1690 तक। ये पराक्रमी योद्धा थे। इन्होंने मिथिला की प्राचीन राजधानी सिमराँव परगने के अधीश्वर सुगाओं-नरेश गजसिंह पर आक्रमण कर हराया था।
8.राजा नरपति ठाकुर (महिनाथ ठाकुर के भाई) – 1690-1700 तक।
9.राजा राघव सिंह – 1700-1739 तक। (इन्होंने ‘सिंह’ की उपाधि धारण की।) इन्होंने अपने प्रिय खवास वीरू कुर्मी को कोशी अंचल की व्यवस्था सौंप दी थी। शासन-मद में उसने अपने इस महाराज के प्रति ही विद्रोह कर दिया। महाराज ने वीरतापूर्वक विद्रोह का शमन किया तथा नेपाल तराई के पँचमहाल परगने के उपद्रवी राजा भूपसिंह को भी रण में मार डाला। इनके ही कुल के एक कुमार एकनाथ ठाकुर के द्वेषवश उभाड़ने से बंगाल-बिहार के नवाब अलीवर्दी खान इन्हें सपरिवार बन्दी बनाकर पटना ले गया तथा बाद में भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को कर निर्धारित कर मुक्त कर दिया। माना गया है कि इसी कारण मिथिला में यह तिथि पर्व-तिथि बन गयी और इस तिथि को कलंकित होने के बावजूद चन्द्रमा की पूजा होने लगी। मिथिला के अतिरिक्त भारत में अन्यत्र कहीं चौठ-चन्द्र नहीं मनाया जाता है। यदि कहीं है तो मिथिलावासी ही वहाँ रहने के कारण मनाते हैं।
10.राजा विसुन (विष्णु) सिंह – 1739-1743 तक।
11.राजा नरेन्द्र सिंह (राघव सिंह के द्वितीय पुत्र) – 1743-1770 तक। इनके द्वारा निश्चित समय पर राजस्व नहीं चुकाने के कारण अलीवर्दी खान ने पहले पटना के सूबेदार रामनारायण से आक्रमण करवाया। यह युद्ध रामपट्टी से चलकर गंगदुआर घाट होते हुए झंझारपुर के पास कंदर्पी घाट के पास हुआ था। बाद में नवाब की सेना ने भी आक्रमण किया। तब नरहण राज्य के द्रोणवार ब्राह्मण-वंशज राजा अजित नारायण ने महाराजा का साथ दिया था तथा लोमहर्षक युद्ध किया था। इन युद्धों में महाराज विजयी हुए पर आक्रमण फिर हुए।
12.रानी पद्मावती – 1770-1778 तक।
13.राजा प्रताप सिंह (नरेन्द्र सिंह का दत्तक पुत्र) – 1778-1785 तक। इन्होंने अपनी राजधानी को भौआरा से झंझारपुर में स्थानान्तरित किया।
14.राजा माधव सिंह (प्रताप सिंह का विमाता-पुत्र) – 1785-1807 तक। इन्होंने अपनी राजधानी झंझारपुर से हटाकर दरभंगा में स्थापित की। लार्ड कार्नवालिस ने इनके शासनकाल में जमीन की दमामी बन्दोबस्ती करवायी थी।
15.महाराजा छत्र सिंह – 1807-1839 तक। इन्होंने 1814-15 के नेपाल युद्ध में अंग्रेजों की सहायता की थी। हेस्टिंग्स ने इन्हें ‘महाराजा’ की उपाधि दी थी।
16.महाराजा रुद्र सिंह – 1839-1850 तक।
17.महाराजा महेश्वर सिंह – 1850-1860 तक। इनकी मृत्यु के पश्चात् कुमार लक्ष्मीश्वर सिंह के अवयस्क होने के कारण दरभंगा राज को कोर्ट ऑफ वार्ड्स के तहत ले लिया गया। जब कुमार लक्ष्मीश्वर सिंह बालिग हुए तब अपने पैतृक सिंहासन पर आसीन हुए।
18.महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह – 1880-1898 तक। ये काफी उदार, लोक-हितैषी, विद्या एवं कलाओं के प्रेमी एवं प्रश्रय दाता थे। रामेश्वर सिंह इनके अनुज थे।
19.महाराजाधिराज रामेश्वर सिंह – 1898-1929 तक। इन्हें ब्रिटिश सरकार की ओर से ‘महाराजाधिराज’ का विरुद दिया गया तथा और भी अनेक उपाधियाँ मिलीं। अपने अग्रज की भाँति ये भी विद्वानों के संरक्षक, कलाओं के पोषक एवं निर्माण-प्रिय अति उदार नरेन्द्र थे। इन्होंने भारत के अनेक नगरों में अपने भवन बनवाये तथा अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया। वर्तमान मधुबनी जिले के राजनगर में इन्होंने विशाल एवं भव्य राजप्रासाद तथा अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया था। यहाँ का सबसे भव्य भवन (नौलखा) 1926 ई. में बनकर तैयार हुआ था, जिसके आर्चिटेक डाॅ. एम.ए.कोर्नी (Dr. M.A. Korni) थे। ये अपनी राजधानी दरभंगा से राजनगर लाना चाहते थे लेकिन कुछ कारणों से ऐसा न हो सका, जिसमें कमला नदी में भीषण बाढ़ से कटाई भी एक मुख्य कारण था। जून 1929 में इनकी मृत्यु हो गयी। ये भगवती के परम भक्त एवं तंत्र-विद्या के ज्ञाता थे।
20. महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह – पिता के निधन के बाद ये गद्दी पर बैठे। इन्होंने अपने भाई राजा बहादुर विश्वेश्वर सिंह को अपने पूज्य पिता द्वारा निर्मित राजनगर का विशाल एवं दर्शनीय राजप्रासाद देकर उस अंचल का राज्य-भार सौंपा था। 1934 के भीषण भूकम्प में अपने निर्माण का एक दशक भी पूरा होते न होते राजनगर के वे अद्भुत नक्काशीदार वैभवशाली भवन क्षतिग्रस्त हो गये।
कामेश्वर सिंह के समय में ही भारत स्वतंत्र हुआ और जमींदारी प्रथा समाप्त हुई। देशी रियासतों का अस्तित्व समाप्त हो गया। महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह को संतान न होने से उनके भतीजे (राजा बहादुर विश्वेश्वर सिंह जी के ज्येष्ठ पुत्र) कुमार जीवेश्वर सिंह संपत्ति के अधिकारी हुए।
दरभंगा नरेश कामेश्वर सिंह अपनी शान-शौकत के लिए पूरी दुनिया में विख्यात थे। अंग्रेज शासकों ने इन्हें ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि दी थी। राज दरभंगा ने नए जमाने के रंग को भांप कर कई कंपनियों की शुरुआत की थी। नील के व्यवसाय के अलावा महाराजाधिराज ने चीनी मिल, कागज मिल आदि खोले। इससे बहुतों को रोजगार मिला और राज सिर्फ किसानों से खिराज की वसूली पर ही आधारित नहीं रहा। आय के नये स्रोत बने। इससे स्पष्ट होता है कि दरभंगा नरेश आधुनिक सोच के व्यक्ति थे।
पत्रकारिता के क्षेत्र में दरभंगा महाराज ने महत्त्वपूर्ण काम किया। उन्होंने ‘न्यूजपेपर एंड पब्लिकेशन प्राइवेट लिमिटेड’ की स्थापना की और कई अखबार व पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू किया। अंग्रेजी में ‘द इंडियन नेशन‘, हिंदी में ‘आर्यावर्त (समाचारपत्र)‘ और मैथिली में ‘मिथिला मिहिर’ साप्ताहिक मैगजीन का प्रकाशन किया। एक जमाना था जब बिहार में आर्यावर्त सबसे लोकप्रिय अखबार था।
दरभंगा महाराज संगीत और अन्य ललित कलाओं के बहुत बड़े संरक्षक थे। 18वीं सदी से ही दरभंगा हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का बड़ा केंद्र बन गया था। उस्ताद बिस्मिल्ला खान, गौहर जान, पंडित रामचतुर मल्लिक, पंडित रामेश्वर पाठक और पंडित सियाराम तिवारी दरभंगा राज से जुड़े विख्यात संगीतज्ञ थे। उस्ताद बिस्मिल्ला खान तो कई वर्षों तक दरबार में संगीतज्ञ रहें। कहते हैं कि उनका बचपन दरभंगा में ही बीता था। गौहर जान ने साल 1887 में पहली बार दरभंगा नरेश के सामने प्रस्तुति दी थी। फिर वह दरबार से जुड़ गईं। दरभंगा राज ने ग्वालियर के मुराद अली खान का बहुत सहयोग किया। वे अपने समय के मशहूर सरोदवादक थे। महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह स्वयं एक सितारवादक थे। ध्रुपद को लेकर दरभंगा राज में नये प्रयोग हुए। ध्रुपद के क्षेत्र में दरभंगा घराना का आज अलग स्थान है। महाराज कामेश्वर सिंह के छोटे भाई राजा विश्वेश्वर सिंह प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता और गायक कुंदन लाल सहगल के मित्र थे। जब दोनों दरभंगा के बेला पैलेस में मिलते थे तो बातचीत, ग़ज़ल और ठुमरी का दौर चलता था। दरभंगा राज का अपना फनी ऑरकेस्ट्रा और पुलिस बैंड था।
खेलों के क्षेत्र में दरभंगा राज का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। स्वतंत्रतापूर्व बिहार में लहेरिया सराय में दरभंगा महाराज ने पहला पोलो मैदान बनवाया था। राजा विश्वेश्वर सिंह ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन के संस्थापक सदस्य में थे। दरभंगा नरेशों ने कई खेलों को प्रोत्साहन दिया।
शिक्षा के क्षेत्र में दरभंगा राज का योगदान अतुलनीय है। दरभंगा नरेशों ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, कलकत्ता विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, पटना विश्वविद्यालय, कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा मेडिकल कॉलेज एवं हॉस्पिटल, ललितनारायण मिथिला विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और कई संस्थानों को काफी दान दिया। महाराजा रामेश्वर सिंह बहादुर पंडित मदनमोहन मालवीय के बहुत बड़े समर्थक थे और उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय को 5,000,000 रुपये कोष के लिए दिए थे। महाराजा रामेश्वर सिंह ने पटना स्थित दरभंगा हाउस (नवलखा पैलेस) पटना विश्वविद्यालय को दे दिया था। सन् 1920 में उन्होंने पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल के लिए 500,000 रुपये देने वाले सबसे बड़े दानदाता थे। उन्होंने आनन्द बाग पैलेस और उससे लगे अन्य महल कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय को दे दिए। कलकत्ता विश्वविद्यालय के ग्रन्थालय के लिए भी उन्होंने काफी धन दिया। ललितनारायण मिथिला विश्वविद्यालय को राज दरभंगा से 70,935 किताबें मिलीं।
इसके अलावा, दरभंगा नरेशों ने स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में काफी योगदान किया। महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह बहादुर भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के संस्थापक सदस्य थे। अंग्रेजों से मित्रतापूर्ण संबंध होने के बावजूद वे काँग्रेस की काफी आर्थिक मदद करते थे। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, अबुल कलाम आजाद, सुभाष चंद्र बोस और महात्मा गांधी से उनके घनिष्ठ संबंध थे। सन् 1892 में कांग्रेस इलाहाबाद में अधिवेशन करना चाहती थी, पर अंग्रेज शासकों ने किसी सार्वजनिक स्थल पर ऐसा करने की इजाजत नहीं दी। यह जानकारी मिलने पर दरभंगा महाराजा ने वहां एक महल ही खरीद लिया। उसी महल के ग्राउंड पर कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। महाराजा ने वह किला कांग्रेस को ही दे दिया। महाराजा कामेश्वर सिंह गौतम ने भी राष्ट्रीय आन्दोलन में काफी योगदान दिया। महात्मा गांधी उन्हें अपने पुत्र के समान मानते थे।
महल
दरभंगा में कई महल हैं जो दरभंगा राज काल के दौरान बनाए गए थे। इनमें नरगोना पैलेस शामिल है, जिसका निर्माण 1934 के नेपाल-बिहार भूकम्प के बाद किया गया था और तब से इसे ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय और लक्ष्मीविलास पैलेस को दान कर दिया गया है। जो 1934 ई. के भूकंप में गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हो गया था, बाद में इसका पुनर्निर्माण किया गया और कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय और दरभंगा किले को दान कर दिया गया।
बिहार के मधुबनी जिले में राजनगर, राजनगर पैलेस कॉम्प्लेक्स सहित भारत के अन्य शहरों में भी दरभंगा राज के कई महल थे।
धन
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन
लक्ष्मेश्वर सिंह 1885 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) के संस्थापकों में से एक थे। राज दरभंगा ब्रिटिश राज के साथ अपनी निकटता बनाए रखने के बावजूद पार्टी के प्रमुख दानदाताओं में से एक थे। ब्रिटिश शासन के दौरान, INCy इलाहाबाद में अपना वार्षिक सम्मेलन आयोजित करना चाहता थें, लेकिन उन्हें इस उद्देश्य के लिए सरकार द्वारा किसी भी सार्वजनिक स्थान का उपयोग करने की अनुमति से इनकार कर दिया गया था। दरभंगा के महाराजा ने एक क्षेत्र खरीदा और काँग्रेस को वहाँ अपना वार्षिक सम्मेलन आयोजित करने की अनुमति दी। 1892ई. के काँग्रेस का वार्षिक सम्मेलन 28 दिसंबर को लोथर कैसल के मैदान में आयोजित किया गया था, जिसे तत्कालीन महाराजा ने खरीदा था।[9] महाराजा द्वारा इस क्षेत्र को ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा पार्टी को ठिकाने लगाने से रोकने के लिए ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा किसी भी प्रयास को विफल करने के लिए पट्टे पर दिया गया था। उनके वार्षिक सम्मेलन 2018 में 57 साल बाद मिथिला स्टूडेंट यूनियन द्वारा दरभंगा किला गेट पर राष्ट्रीय ध्वज की मेजबानी की गई।
मिथिला समाज और मैथिली भाषा
राज दरभंगा शाही परिवार को मिथिला और मैथिली भाषा के अवतार के रूप में देखा जाता था। अवलंबी महाराजा मैथिल महासभा के वंशानुगत प्रमुख थे, जो एक लेखक संगठन थे, और उन्होंने भाषा और उसके साहित्य के पुनरुत्थान में एक प्रमुख भूमिका निभाई।
धर्म
दरभंगा के महाराजा संस्कृत परंपराओं के प्रति समर्पित थें और जाति और धर्म दोनों में रूढ़िवादी हिंदू प्रथाओं के समर्थक थें। शिव और काली राज परिवार के मुख्य देवता थे। यद्यपि वे गहरे धार्मिक थें, फिर भी वे अपने दृष्टिकोण में धर्मनिरपेक्ष थें। दरभंगा में महल क्षेत्र में मुस्लिम संतों की तीन कब्रें और एक छोटी मस्जिद हैं। दरभंगा में किले की दीवारों को एक क्षेत्र छोड़ने के लिए डिजाइन किया गया था ताकि मस्जिद को नुकसान न किया जाए। एक मुस्लिम संत की कब्र आनंदबाग पैलेस के बगल में स्थित है।
वेद और वैदिक संस्कारों के अध्ययन जैसे पुराने हिंदू रीति-रिवाजों को फिर से शुरू करने के उनके प्रयास के हिस्से के रूप में, महाराजा ने वहाँ पढ़ाने के लिए दक्षिण भारत के कुछ प्रसिद्ध सामवेदियों को आमंत्रित करके सामवेदिक अध्ययन को फिर से प्रस्तुत किया।[10]
महाराजा रामेश्वर सिंह एक नव-रूढ़िवादी हिंदी संगठन श्री भारत धर्म महामंडल के महासचिव थें, जिन्होंने सभी जातियों और महिलाओं को हिंदू धर्मग्रंथ उपलब्ध कराने की मांग की। वह अगमनुशंदन समिति के मुख्य संरक्षक में से एक थें, जिसका संगठन अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में तांत्रिक ग्रंथों को प्रकाशित करने के उद्देश्य से था।[11]
शिक्षा का प्रचार
मेरा मानना है कि एक शिक्षा जो किसी के पूर्वजों के धर्म में शिक्षा प्रदान नहीं करती है वह कभी भी पूर्ण नहीं हो सकती है और यह आश्वस्त है कि एक हिंदू एक बेहतर हिंदू, एक ईसाई एक बेहतर ईसाई और एक मोहम्मद एक बेहतर मोहम्मडन होगा यदि उसका विश्वास था अपने ईश्वर में और अपने पूर्वजों के धर्म में।[12]
दरभंगा के राज परिवार ने भारत में शिक्षा के प्रसार में भूमिका निभाई। दरभंगा राज बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, कलकत्ता विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, पटना विश्वविद्यालय, कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा मेडिकल कॉलेज और अस्पताल, ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और भारत में कई अन्य शैक्षणिक संस्थानों के प्रमुख दानदाता थे।[13]
महाराजा रामेश्वर सिंह बहादुर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय शुरू करने के लिए पंडित मदन मोहन मालवीय के एक प्रमुख दानदाता और समर्थक थे; उन्होंने 5,000,000 रु. स्टार्ट-अप फंड दान किए और धन उगाहने वाले अभियान में सहायता की।[14] महाराजा कामेश्वर सिंह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के प्रो-चांसलर भी थे।[15]
महाराजा रामेश्वर सिंह ने पटना विश्वविद्यालय में दरभंगा हाउस (नवलखा पैलेस) दान किया। महाराजा ने पटना विश्वविद्यालय में एक विषय के रूप में मैथिली की शुरुआत करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, और 1920 में, उन्होंने पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल को स्थापित करने के लिए 500,000.00 रुपये का दान दिया, जो कि सबसे बड़ा योगदानकर्ता था।[16]
महाराजा कामेश्वर सिंह ने 30 मार्च 1960 को अपने पुश्तैनी घर, आनंद बाग पैलेस को दान कर दिया, साथ ही कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए एक समृद्ध पुस्तकालय और महल के चारों ओर की भूमि भी प्रदान की। नरगोना पैलेस और राज प्रमुख कार्यालय 1972 में बिहार सरकार को दान कर दिए गए थें। इमारतें अब ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय का हिस्सा हैं।[17] दरभंगा राज ने अपनी लाइब्रेरी के लिए ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय को 70,935 पुस्तकें दान कीं।
दरभंगा में राज स्कूल की स्थापना महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह बहादुर ने की थी। यह स्कूल शिक्षा के अंग्रेजी माध्यम प्रदान करने और मिथिला में आधुनिक शिक्षण विधियों को प्रस्तुत करने के लिए स्थापित किया गया था। पूरे दरभंगा राज में कई अन्य विद्यालय भी खोले गए।
दरभंगा राज कलकत्ता विश्वविद्यालय का एक प्रमुख दानदाता थें, और कलकत्ता विश्वविद्यालय के केंद्रीय पुस्तकालय भवन को दरभंगा भवन कहा जाता है।
१९५१ में, भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की पहल पर, काबरघाट में स्थित मिथिला स्नातकोत्तर शोध संस्थान (मिथिला पोस्ट-ग्रेजुएट रिसर्च इंस्टीट्यूट) की स्थापना की गई। महाराजा कामेश्वर सिंह ने इस संस्था को दरभंगा में बागमती नदी के किनारे स्थित 60 एकड़ (240,000 वर्ग मीटर) भूमि और आम और लीची के पेड़ों के साथ एक इमारत दान में दी।[18]
दरभंगा के महाराजा महिलाओं के लिए शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए 1839 में एमएसटी गंगाबाई द्वारा स्थापित एक विद्यालय, महाकाली पाठशाला के मुख्य संरक्षक, ट्रस्टी और फाइनेंसर थे।[19] इसी तरह बरेली महाविद्यालय, बरेली जैसे कई महाविद्यालयों को दरभंगा के महाराजाओं से पर्याप्त दान मिला।[20]
मोहनपुर में महारानी रामेश्वरी भारतीय चिक्तिसा विज्ञान संस्थान का नाम महाराजा रामेश्वर सिंह की पत्नी के नाम पर रखा गया है।
संगीत
18 वीं शताब्दी के अंत से दरभंगा भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रमुख केंद्रों में से एक बन गया। दरभंगा राज के राजा संगीत, कला और संस्कृति के महान संरक्षक थें। दरभंगा राज से कई प्रसिद्ध संगीतकार जुड़े थे। उनमें प्रमुख थें उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, गौहर जान, पंडित राम चतुर मल्लिक, पंडित रामेश्वर पाठक और पंडित सिया राम तिवारी। दरभंगा राज ध्रुपद के मुख्य संरक्षक थे, जो भारतीय शास्त्रीय संगीत में एक मुखर शैली थी। ध्रुपद का एक प्रमुख विद्यालय आज दरभंगा घराना के नाम से जाना जाता है। आज भारत में ध्रुपद के तीन प्रमुख घराने हैं: डागर घराना, बेतिया राज (बेतिया घराना) के मिश्र और दरभंगा (दरभंगा घराना) के मिश्र।[21]
एस एम घोष (1896 में उद्धृत) के अनुसार महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह एक अच्छे सितार वादक थें।
उस्ताद बिस्मिल्लाह खान कई सालों तक दरभंगा राज के दरबारी संगीतकार रहे। उन्होंने अपना बचपन दरभंगा में बिताया था।[22]
1887 में दरभंगा के महाराजा के समक्ष गौहर जान ने अपना पहला प्रदर्शन किया और उन्हें दरबारी संगीतकार के रूप में नियुक्त किया गया।[23] 20 वीं सदी के शुरुआती दौर के प्रमुख सितार वादकों में से एक पंडित रामेश्वर पाठक दरभंगा राज में दरबारी संगीतकार थें।[24]
दरभंगा राज ने ग्वालियर के नन्हे खान के भाई मुराद अली खान का समर्थन किया। मुराद अली खान अपने समय के सबसे महान सरोद वादकों में से एक थें। मुराद अली खान को अपने सरोद पर धातु के तार और धातु के तख्ती प्लेटों का उपयोग करने वाले पहले व्यक्ति होने का श्रेय दिया जाता है, जो आज मानक बन गया है।[25]
कुंदन लाल सहगल महाराजा कामेश्वर सिंह के छोटे भाई राजा बिशेश्वर सिंह के मित्र थे। जब भी दोनों दरभंगा के बेला पैलेस में मिले, गजल और ठुमरी की बातचीत और गायन के लंबे सत्र देखे गए। कुंदन लाल सहगल ने राजा बहादुर की शादी में भाग लिया, और शादी में अपना हारमोनियम निकाला और “बाबुल मोरा नैहर छुरी में जाए” गाया।[26]
दरभंगा राज का अपना सिम्फनी ऑर्केस्ट्रा और पुलिस बैंड था। मनोकामना मंदिर के सामने एक गोलाकार संरचना थी, जिसे बैंड स्टैंड के नाम से जाना जाता था। बैंड शाम को वहाँ संगीत बजाता था। आज बैंडस्टैंड का फर्श अभी भी एकमात्र हिस्सा है।
लोक निर्माण कार्य
- महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह बहादुर ने स्कूल, डिस्पेंसरी और अन्य सुविधाओं का निर्माण किया और उन्हें जनता के लाभ के लिए अपने स्वयं के धन से बनाए रखा। दरभंगा में औषधालय की कीमत £ 3400 थी, जो उस समय बहुत बड़ी राशि थी।
- दरभंगा राज महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह बहादुर ने दरभंगा में सभी नदियों पर बनाए गए लोहे के पुलों का निर्माण शुरू किया।
- मुजफ्फरपुर जजशिप के निर्माण और उपयोग के लिए 52 बीघा भूमि दान किया।[27]
- दरभंगा राज में किसानों के लिए सिंचाई प्रदान करने के लिए इस क्षेत्र में खोदी गई कई झीलें और तालाब थे और इस प्रकार अकाल को रोकने में मदद मिलती थी।
- उत्तर बिहार में पहली रेलवे लाइन, दरभंगा और बाजितपुर के बीच, गङ्गा के विपरीत, जो बरह के सामने 1874 में बनाई गई थी, महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह ने की।[28]
- दरभंगा राज द्वारा 19वीं सदी के शुरुआती भाग में 1,500 किलोमीटर से अधिक सड़कों का निर्माण किया गया था। इसमें से 300 किमी की मेटल्ड सड़क पर थी। इससे व्यापार के विस्तार के साथ-साथ इस क्षेत्र में कृषि उपज के लिए अधिक से अधिक बाजार बन गए।[29]
- वाराणसी में राम मंदिर और रानी कोठी जैसे कई धर्मशालाओं (धर्मार्थ आवासों) का निर्माण किया गया था।
- बेसहारा लोगों के लिए घरों का निर्माण किया गया था।
- दरभंगा राज दुग्ध उत्पादन में सुधार के लिए क्रॉस-ब्रीडिंग मवेशियों का अग्रणी था। दरभंगा राज द्वारा हांसी नामक एक बेहतर दूध देने वाली गाय की नस्ल पेश की गई। गाय स्थानीय गायों और जर्सी नस्ल के बीच की क्रॉस ब्रीड थी।[31]
खेल
दरभंगा राज ने विभिन्न खेल गतिविधियों को सक्रिय रूप से बढ़ावा दिया। लहेरियासराय में पोलो ग्राउंड बिहार में स्वतंत्रता-पूर्व समय में पोलो का एक प्रमुख केंद्र था। कलकत्ता में एक प्रमुख पोलो टूर्नामेंट के विजेता को दरभंगा कप से सम्मानित किया जाता है।[32]
राजा बिशेश्वर सिंह अखिल भारतीय फुटबॉल महासंघ के संस्थापक सदस्यों में से एक थे, जो भारत में फुटबॉल के लिए प्रमुख शासी निकाय थे। राजा बहादुर, हरिहरपुर एस्टेट के राय बहादुर ज्योति सिंह के साथ, 1935 में इसकी स्थापना के बाद महासंघ के मानद सचिव थें।[33]
माउंट एवरेस्ट पर पहली उड़ान 1933 में हुई थी। इस अभियान का आयोजन सैन्य अधिकारियों द्वारा किया गया था, सार्वजनिक कंपनियों द्वारा समर्थित, और दरभंगा के महाराजा कामेश्वर सिंह बहादुर द्वारा बनैली राज के राजा बहादुर किर्त्यानंद सिन्हा के साथ मेजबानी की गई थी।[34]