कुमारिल भट्ट
मीमांसा शास्त्र पर मीमांसा के द्वारा अनेकों पुस्तकें लिखी गयी हैं। यथा जैमिनि का सूत्र ग्रन्थ इस अध्ययन का मुख्य कार्य है। इस शास्त्र के अति महत्वपूर्ण तथा प्रारंभिक लेखक कुमारिलभट्ट हैं, जिसने छठी शताब्दी में बड़ी उन्नति की। इन्हें विभिन्न नामों से जाना जाता है यथा कुमारिल स्वामीमिश्र या तुताताभट्ट। कुमारिल मिथिला से आये हैं, ऐसा उनके लेख द्वारा आसानी से प्रमाणित किया जा सकता है। उन्होंने अपनी श्योक वार्तिका में लिख है कि मीमांसा शास्त्र इतना विकृत हो गया है कि यह नास्तिकों जो कि संभवतया बौद्ध हैं, के हाथों में आ गया है और बाद में इसको उनके हाथों से लेकर मैंने (कमारिल) आस्तिकों में जाने की पूरी कोशिश की है।
शंकर दिग्विजय और तिब्बती साहित्य में कुमारिल और बोद्ध विद्वान धर्म कीर्ति के बीच विवादों के बारे में कुछ कहानियाँ मिलती हैं। मीमांसा की प्रकृति के बारे में वे कहते हैं कि प्रत्यक्ष अनुभव एवं अनुमान पर आधारित है और इसे अटूट विज्ञान के शिक्षकों की एक पंक्ति द्वारा उठाया गया है। कुमारिल (650-725 CR) मिथिला के निवासी थे। उन्होंने शावर स्वामी के शावरभाष्य पर टीकाओं के दो समूहों की रचना की थी। (1) वृहट्टीका और मध्यम टीका एवं (2) श्लोक वार्तिक, तंत्र वार्तिक और टुप्टीका। जब भारत प्राय बौद्ध हो गया था, बौद्ध सम्राट की महारानी अपने अन्तः करण की व्यथा सचमुच किससे कहें। वेदों तथा सनातन धर्म का नाम लेना अपराध हो गया था। उस समय निर्णयात्मक वाणी में(मैं वेदों का उद्धार करूँगा) यह आश्वासन देना आचार्य कुमारिल का ही साहस था। बौद्ध मत के खंडन करने के लिये आचार्य को बौद्ध विद्वानों से अध्ययन करना पड़ा और अपनी लोकोत्तर प्रतिभा के बल पर आचार्य ने बौद्ध पंडितों को शारत्रार्थ में पराजित कर अपने वेदोद्धार की प्रतिभा को सफल कर दिया। आचार्य कुमारिल भट्ट के शिष्य मंडन मिश्र थे।
मैंने गुरूद्रोह किया है आचार्य कुमारिल की शास्त्रों पर जो श्रद्धा थी, आज के युग में उसकी कल्पना भी कठिन है। वेदों की रक्षा, सनातन धर्म स्थापना हेतु जो कुछ किया गया, वह ठीक था। उद्देश्य पवित्र था, किन्तु जिनसे अध्ययन किया, उन्हीं का खण्डन तो गुरूद्रोही हुआ। आचार्य को न कष्ट का भय था और न शरीर का मोह। उन्होंने प्रायश्चित का निश्चय किया। प्रायश्चित भी क्या? जब शंकराचार्य उनसे शास्त्रार्थ करने पहुँचे, वे प्रयाग में त्रिवेणी तट पर तुषाग्नि, चावलों की भूसी की आगद्ध में बैठे थे, जो बहुत धीर-धीरे जलाकर प्राण लेती है। वे पूर्व मीमांसा के मुख्य आचार्य हैं। उनका मत मीमांसा में गुरूमत कहा जाता है। पूर्व मीमांसा के शाबरभाष्य पर उनकी टीका हैं। श्री शंकराचार्य ने अपने ग्रन्थों में उन्हें गुरू की भांति भगवत्पाद कहकर स्मरण किया है।