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    यज्ञोपवीत (उपनयन) का वर्णन

    यज्ञोपवीत ब्राह्मणों के प्रमुख संस्कारों में से एक है। जब यज्ञोपवीत संस्कार होता है तब ब्रह्मचारी अपने उत्तरदायित्व को समझने लगता है और आत्म पवित्रता का अनुभव करने लगता है।
    रचना-
    यज्ञोपवीत छियानवें चैआ (अंगुल) का होता है। विप्र के बालक का यज्ञोपवीत संस्कार पांचवे वर्ष करना चाहिए, जब बालक चार वर्ष व्यतीत कर पांचवे वर्ष में प्रवेश करे, तभी योग्य आचार्य द्वारा शास्त्रीय विधि विधान से उपनयन संस्कार करावें।
    यज्ञोपवीत में तीन सूत्र होते हैं, जिनमें प्रत्येक सूत्र में नौ धागे (तन्तु) होते हैं। जो भली भांति बटे हुए एवं माजे हुए रहते हैं। यज्ञोपवीत में तीन तागे बताते हैं कि मनुष्य तीन ऋणों से ग्रस्त हो जाता है, जिन्हें पितृ ऋण, देव ऋण और ऋषि ऋण के नामों से पुकारते हैं। यज्ञोपवीत में नौ धागे नौ गुणों के प्रतीक हैं। विवेक, पवित्रता, वलिष्ठता, शान्ति, साहस, स्थिरता, धैर्य, कर्तव्यनिष्ठा, समृद्धि व सामूहिकता अथर्ववेद के अनुसार यज्ञोपवीत के नौ गुण अष्ट चक्र नव द्वार है अतः नव गुण नव द्वार का प्रतीक है।

    धारण करने की विधि-
    मनुष्य के शरीर में ‘हृदय’ वाये भाग में स्थित है अतः यज्ञोपवीत बायें कंधे से दाहिनी ओर धारण किया जाता है। यज्ञोपवीत (यज्ञोपवीतं परम पवित्रं) के साथ धारण किया जाता है। पांच यज्ञोपवीत धारी मिलकर उसे पहनाते हैं। इसके उपरान्त गायत्री का जप करके आचमन किया जाता है।
    आधुनिक काल में पुराना हो जाने पर या अशुद्ध हो जाने पर या टूट जाने पर जब नव यज्ञोपवीत धारण किया जाता है तो साथ में कृत्य इस प्रकार का होता है। यज्ञोपवीत पर तीन ‘‘आपो हिष्ठा’’ (ऋग्वेद 10/9/1-3) मंत्रों के साथ जल छिड़का जाता है। इसके बाद दशवार गायत्री प्रति बार व्याहतियां ‘‘अर्थात’’ ओउम् भूर्भुवः स्वः के साथ दुहराई जाती है और तब यज्ञोपवीत परम पवित्र के साथ धारण किया जाता है।