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  • मैथिल ब्राह्मणोत्पत्ति

    काशी के ईशान दिशा में अंग देश के समीप जनकपुरी है, प्राचीन समय में वैवस्वतमनु के पुत्र इक्ष्वांकु व इक्ष्वांकु के पुत्र निमि यहाँ के प्रतापी सम्राट हुए। एक बार निमि ने मोक्ष की अभिलाशा से यज्ञ कराना चाहा, उस समय निमि के कुल गुरू वशिष्ठ इन्द्र के यहाँ यज्ञ कराने गए हुए थे। राजा ने कालगति को जान, समयाभाववश अन्य विद्वान ब्राह्मणों को बुलाकर यज्ञ प्रारम्भ करवा दिया, यज्ञ समाप्ति के अन्तिम चरण में वशिष्ठ मुनि यज्ञ मण्डप में पहुंच गए। वशिष्ठ जी यह देख अत्यन्त क्रोधित होते हुए बोले राजा तुमने मेरा अनादर किया है, कुलगुरू होते हुए मुझे सूचना भी नहीं दी और अन्य पण्डितों से यज्ञ करा रहा है, इसलिए मैं तुझे श्राप देता हूँ कि तेरी देह का पतन हो। तब राजा निम ने कहा, मुनिवर आपने स्वयं लोभवश होकर मेरी परिस्थिति को बिना सोचे-समझे मुझे श्राप दिया है। अतः मैं भी आपको श्राप देता हूँ कि तुम्हारा भी देह पतन हो। इस प्रकार यज्ञ मण्डप में राजा निमि व मुनि वशिष्ठ दोनों देह बन्धन त्याग स्वर्गवासी हुए। इधर राजा निमि के शरीर त्यागने के पश्चात यज्ञ मण्डप में ब्राह्मणों ने विचार किया कि हमारे कारण मुनि वशिष्ठ ने राजा को श्राप दिया जिससे राजा का शरीर त्याग हुआ, इसका दोष हमें लगेगा, सांसारिक रूप से यह हम सभी ब्राह्मणों का अपमान अथवा ब्रहम शक्ति का अपमान है। अतः विद्या के धनी, वेदपाठी इन सभी ब्राह्मणों ने राजा निमि का वंश चलाने के लिए निमि राजा के मृत शरीर को यज्ञ कुण्ड पर रख अपनी विद्याशक्ति व मन्त्रशक्ति से उसका मंथन किया। फलतः उस यज्ञ कुण्ड से दिव्य देहधारी एक बालक का आविर्भाव हुआ। ब्राह्मणों ने उस बालक के तीन नाम रखें। 1.यज्ञ में जन्म लेने के कारण जनक 2.किसी देहधारी के बिना जन्म लेने के कारण विदेह 3.मंथन करने से जन्म लेने के कारण मिथि नाम हुआ।
    मिथि बड़े होने पर राजा बने, उन्होंने अपने नाम से एक नगरी बसाई, जहाँ अपना राजदरबार बनाया। उस नगरी का नाम मिथिला अथवा जनकपुर नाम रखा। राजा मिथि के राज्य क्षेत्र को मिथिलांचल कहते हैं। जो ब्राह्मण मिथिला क्षेत्र में रहते थे। वह मैथिल ब्राह्मण कहलाए।

    यह मैथिल ब्राह्मण याज्ञवल्क्य मुनि की उपासना करने वाले शुक्ल यजुर्वेदीय व वेद वेदांग में पारंगत होते हैं। समस्त भारतवर्ष में सम्पूर्ण ब्रहम समाज के केवल 24 ऋषि मूल गोत्र कर्ता हैं, जिनमें से मैथिल ब्राह्मण समाज के 15 ऋषि गोत्र कर्ता हैं। 1.शाण्डिल्य, 2.वत्स, 3.काश्यप, 4.पारासर, 5.भारद्वाज, 6.कात्यायन, 7.गौतम, 8.कौशिक, 9.कृष्णात्रेय, 10.गाग्र्य, 11. विष्णुवृद्वि, 12.सावर्णय, 13.वशिष्ठ, 14.कौण्डिल्य, 15.मौद्गल। समस्त मैथिल ब्राह्मण वंश के 6 कुल भेद व 6 आस्पद हेैं।
    1.श्रोत्रिय, 2.जोग्य, 3.पाँज, 4.गृहस्थ, 5.वंश, 6.गरीब।
    आस्पद- किसी नाम के अन्त में जो शब्द लगाया जाता है, उसे आस्पद कहते हैं। मैथिल ब्राह्मणों के 6 आस्पद होते हैं। झा, पाठक, ठक्कुर, मिश्र, सिंह व चौधरी ।

    मैथिल ब्राह्मणों के वेद, शाखा, सूत्रादि-
    सभी मैथिल ब्राह्मण दो वेदों के मानने वाले होते हैं। शांण्डिल्य, वत्स, काश्यप, सावर्ण व कौशिक ऋषि सामवेदी, कौथुमी शाखा, गोभिल सूत्र, वाम शिखा, वाम पाद है। अर्थात् शुभ कार्यों में वाम चरण प्रथम प्रक्षालन करते हैं। शेष ऋषि यजुर्वेदी, शाखा माध्यानन्दिनी, कात्यायन,सूत्र, दक्षिण शिखा व दायाँ पाद प्रथम प्रक्षालन करते हैं।
    मिथिलांचल क्षेत्र का प्रमाण मिथिला, जिसे जनकपुर भी कहा जाता है, का बहुत बड़ा भाग नेपाल, कुछ भाग बंगाल व केवल सात जिले (दरभंगा, सहरसा, बेगूसराय, सीतामणि, मधुवनी,समस्तीपुर और कटिहार) ही मिथिलांचल के रूप में शेेष हैं।

    मैथिल ब्राह्मणों की विशेषताएं- यद्यपि सभी ब्राह्मण उच्च, आदर्णीय व पूज्य होते हैं। किन्तु मिथिला तपस्वियों की भूमि होने के कारण वहाँ पर रहने वाले ब्राह्मण (मैथिल ब्राह्मण) विशेष पूज्यनीय आदर्णीय माने जाते थे। मिथिला का ब्राह्मण (मैथिल ब्राह्मण), कर्मकाण्डी, धर्मोपदेशक, ज्योतिष व मीमांसा के ज्ञाता व नीति के मर्मज्ञ होते थे।
    जिस समाज एवं देश एवं जिस जाति की शिक्षा एवं संस्कृति की अपनी अलग संस्कृति, अलग पहचान, अलग निशान, अलग भाषा हो, वह समाज महान माना जाता है। वह समाज सदैव महान माना जाता है। वह समाज सदैव अमर रहता है।
    मैथिल ब्राह्मणों की भाषा- मैथिल ब्राह्मणों की मैथिली भाषा सम्पूर्ण मिथिलांचल में प्रायः आम भाषा के रूप में बोली जाती है। मिथिला प्रदेश (दरभंगा आदि) क्षेत्रों में सभी विशेष साहित्य मैथिली भाषा में प्रकाशित होता है। इस क्षेत्र के निवासी एवं प्रवासी स्त्री पुरूष, बाल, युवा, वृद्व सभी आम बोलचाल में मैथिल भाषा का प्रयोग करते हैं।
    मैथिल ब्राह्मणों का रहन-सहन- मैथिल ब्राह्मणों का रहन-सहन समाज के अन्य पण्डितों से अलग था। साधारण सफेद धोती, बारह तनी युक्त सफेद बगलबन्दी, गले में दुपट्टा, सिर पर विशेष प्रकार की स्थाई रूप से गोल छत्तादार पगडी, एक मैथिल ब्राह्मण हजारों ब्राह्मणों मंे, बिना परिचय के, अपनी वेशभूषा से स्पष्ट पहचाने जा सकते थे। 

    मैथिल ब्राह्मणों की शासन व्यवस्था-सम्पूर्ण भारत के सहस्त्रों भेद के ब्राह्मणों में मात्र मैथिल ब्राह्मण शासक के रूप में रहे, जिन्होंने अपना राज्य, अपनी राजधानी अपनी प्रजा, अपनी सेना बनाकर शासन किया। मिथिला की राज गद्दी पर कई सौ वर्षों तक पीढ़ी दर पीढ़ी मैथिल ब्राह्मण शासक रहे। मैथिल ब्राह्मणों के अतिरिक्त कोई भी ब्राह्मण शासक के रूप में नहीं रहा। यह श्रेय केवल मैथिल ब्राह्मण को ही जाता है। 

    सर्वप्रथम हिजरी सं0 634 तदनुसार सन 1351 से 1388 तक में मुस्लिम बादशाह नवाब फिरोजशाह सुल्तान ने मैथिल ब्राह्मण वंश के प्रकाण्ड पण्डित कामेश्वर ठक्कुर के पुत्र योगीश्वर ठक्कुर को मिथिला का राज्य दानस्वरूप भेंट किया। माननीय योगीश्वर ठक्कुर जी ने अपने रण कौशल, विद्वता और वीरता से अपने सम्पूर्ण जीवनकाल तक मिथिला का शासन किया।
    पं0 योगीश्वर ठक्कुर के मैथिल ब्राह्मणों के संगठन का कार्य भारी परिश्रम के साथ अन्य विद्वान मैथिल ब्राह्मणों को साथ लेकर किया।