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  • मैथिल ब्राह्मणों का मिथिला पर शासन

    मिथिला सदैव से अपने आपमें अद्भुत आकर्षण का केन्द्र रही। (*) यहाँ के निवासी मैथिल ब्राह्मण भी विद्या के धनी, ज्योतिष, कर्मकाण्ड, वेद वेदांग के पारंगत पण्डित रहे। विद्या बल से ही मैथिल ब्राह्मण वंश ने कई सौ वर्ष तक पीढ़ी दर पीढ़ी मिथिला का शासन लिया। सम्पूर्ण ब्राह्मण वंश के मैथिल ब्राह्मण वंश ही ऐसा है, जिसने एक से अधिकवार दान स्वरूप राज्य प्राप्त कर पीढ़ी दर पीढ़ी शासन किया।

    ओइनवार वंश (सुगौना वंश)

    (लगभग 1353 ई. से 1526 ई. तक)

    कर्णाटवंशी अंतिम मिथिलेश हरिसिंह देव के नेपाल पलायन के बाद करीब 30 वर्ष तक मिथिला के राजनीतिक मंच पर अराजकता तथा नृशंसता का ताण्डव होते रहा। सुल्तान फिरोजशाह तुगलक के प्रथम बंगाल आक्रमण के समय मैथिल ब्राह्मण ओइनवार वंश (ठाकुर) के कामेश्वर ठाकुर को मिथिला (तिरहुत) का शासनाधिकार दे दिया गया।

    1.कामेश्वर ठाकुर – 1354 ई., अल्पकाल। आरंभिक समय में राजधानी ‘ओइनी’ (अब ‘बैनी’) गाँव।

    2.भोगीश्वर (भोगेश्वर) ठाकुर – 1354 ई. से 1360 ई. तक।

    3.ज्ञानेश्वर (गणेश्वर) ठाकुर – 1360-1371.

    [इनका उल्लेख कविवर विद्यापति ने किया है।[14] विद्यापति ने जिस लक्ष्मण संवत् का प्रयोग किया है उसपर शकाब्द के साथ विचार करते हुए विद्वद्वर शशिनाथ झा जी अन्य इतिहासकारों की अपेक्षा ईस्वी सन् को 10 वर्ष पहले मानते हैं। अर्थात् उनके अनुसार गणेश्वर ठाकुर की मृत्यु 1371 में नहीं बल्कि 1361ई. में ही हो गयी थी।[15] इस मान्यता से आगे के ईस्वी सन् में से भी 10-10 वर्ष घटते जाएँगे।] 
    

    (इनके बाद 1401 ई. तक बिना अभिषेक के इनके बड़े पुत्र वीर सिंह का शासन किसी प्रकार चला।)

    4.कीर्तिसिंह देव – 1402 ई. से 1410 ई. तक। इनके समय तक मिथिला राज्य विभाजित था। दूसरे भाग पर भवसिंह का शासन था।

    5.भवसिंह देव (भवेश) – 1410 ई., अल्पकाल। ये अविभाजित मिथिला के प्रथम ओइनवार शासक हुए। इस रूप में इनका शासन अल्पकाल के लिए ही रहा। इन्होंने अपने नामपर भवग्राम (वर्तमान मधुबनी जिले में) बसाया था। (इनके समय में मिथिला के किंवदंती पुरुष बन चुके गोनू झा विद्यमान थे।[16] महान् दार्शनिक गंगेश उपाध्याय भी इसी समय के रत्न थे।)

    6.देव सिंह – 1410-1413 [इन्होंने ओइनी तथा भवग्राम को छोड़कर अपने नाम पर दरभंगा के निकट वाग्मती किनारे ‘देवकुली’ (देकुली) गाँव बसाकर वहाँ राजधानी स्थापित किया।]

    7.राजा शिवसिंह देव (विरुद ‘रूपनारायण)- 1413 से 1416 तक। (मात्र 3 वर्ष 9 महीने)

    राजा शिव सिंह की तस्वीर

    इन्होंने अपनी राजधानी ‘देकुली’ से हटाकर ‘गजरथपुर’/गजाधरपुर/शिवसिंहपुर[17] में स्थापित किया, जो दरभंगा से 4-5 मील दूर दक्षिण-पूर्व में है। दरभंगा में भी वाग्मती किनारे इन्होंने किला बनवाया था। उस स्थान को आज भी लोग किलाघाट कहते हैं। 1416 ई.(पूर्वोक्त मत से 1406 ई.) में जौनपुर के सुलतान इब्राहिम शाह की सेना गयास बेग के नेतृत्व में मिथिला पर टूट पड़ी थी। दूरदर्शी महाराज शिवसिंह ने अपने मित्रवत् कविवर विद्यापति के संरक्षण में अपने परिवार को नेपाल-तराई में स्थित राजबनौली के राजा पुरादित्य ‘गिरिनारायण’ के पास भेज दिया। स्वयं भीषण संग्राम में कूद पड़े। मिथिला की धरती खून से लाल हो गयी। शिवसिंह का कुछ पता नहीं चल पाया।[18] उनकी प्रतीक्षा में 12 वर्ष तक लखिमा देवी येन-केन प्रकारेण शासन सँभालती रही।

    8.लखिमा रानी – 1416-17 से 1428-29 तक। (अत्यन्त दुःखद समय के बावजूद कविवर विद्यापति के सहयोग से शासन-प्राप्ति एवं संचालन।)

    9.पद्म सिंह – 1429-1430 .

    10.रानी विश्वास देवी – 1430-1442. (राजधानी- विसौली)

    11.हरसिंह देव( शिवसिंह तथा पद्म सिंह के चाचा) – 1443 से 1444 तक।

    12.नरसिंह देव – 1444 से 1460/62 तक।

    13.धीर सिंह – 1460/62 से। इनके बाद इनके भाई भैरव सिंह राजा हुए।

    14.भैरव सिंह – उपशासन धीर सिंह के समय से ही। मुख्य शासन संभवतः 1480 के लगभग से। (उपनाम – रूपनारायण। बाद में ‘हरिनारायण’ विरुद धारण किया।) इन्होंने अपनी राजधानी वर्तमान मधुबनी जिले के बछौर परगने के ‘बरुआर’ गाँव में स्थापित किया था।[19] वहाँ अभी भी मिथिला में अति प्रसिद्ध ‘रजोखर’ तालाब है, जिसके बारे में मिथिला में लोकोक्ति प्रसिद्ध है :- “पोखरि रजोखरि और सब पोखरा। राजा शिवसिंह और सब छोकरा।।”

    इसके साथ ही कुछ-कुछ दूरी पर दो और तालाब है। साथ ही संभवतः उसी युग का विष्णु-मन्दिर है, जो लक्ष्मीनारायण-मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें भारतीय मध्यकालीन शैली की विष्णु-मूर्ति है।[20]

    इन्हीं महाराज (भैरव सिंह) के दरबार में सुप्रसिद्ध महामनीषी अभिनव वाचस्पति मिश्र तथा अनेक अन्य विद्वान् भी रहते थे।

    15.रामभद्रसिंह देव – 1488/90 से 1510 तक। इन्होंने अपनी राजधानी पुनः अपने पूर्वज शिवसिंह देव की राजधानी से करीब 2 मील पूरब में अपने नाम पर बसाये गये ‘रामभद्र पुर’ में स्थानान्तरित किया। अब इसके पास रेलवे स्टेशन है।

    16.लक्ष्मीनाथसिंह देव – 1510 से 1525 तक। इनका उपनाम कंसनारायण था। ये अपने पूर्वजों के विपरीत दुर्गुणी थे। इनके साथ ही इस राजवंश के शासन का भी अंत हो गया।

    शिवसिंह देव के बाद से ही मिथिला का शासन-तंत्र शिथिल होने लगा था और अराजकता का आगमन होने लगा था। आपसी कलह के कारण भी राजधानी एक छोर से दूसरे छोर तक जाती रहती थी। दूसरी जगह भी साथ-साथ उपशासन रहता था (इसलिए भी कई राजाओं का समय भिन्न-भिन्न जगहों पर भिन्न-भिन्न मिलता है)। इस वंश के शासन के बाद पुनः करीब 30 वर्षों तक मिथिला में कोई केन्द्रीय शासन नहीं रहा। कोई महत्त्वपूर्ण शासक भी नहीं हुआ। छोटे-छोटे राज्य विभिन्न सरदारों के द्वारा स्थापित होते रहे।

    खण्डवाल वंश (खण्डवला कुल)   इन्हें भी देखें

    (*)—-(अधिक जानकारी के लिए )